वैचारिक वेश्यावृत्ति, बनी देश का काल,
कलम वेश्या बन गई, छायाकार दलाल,
बुद्धू बक्सा बन गया, बहुत बड़ा होशियार,
उसे पूजने में लगे, कलमकार सरदार,
सत्ता के गलियारों में, है कोई मायाजाल,
कुछ अचरज मत मानिए, गर मिल जाएँ दलाल
कलमकार के रहनुमा, बन गए धन्नासेठ,
जनता बेबस देखती, बीच धार में बैठ.
क्यों कलमें वेश्या बन करके करती हैं गुमराह,
सत्ता के षड्यंत्रों की खोल न पाई थाह,
क्यों न कलम लिख सकी कभी की गाँधी को क्यों मारा था?
क्यों न कभी स्वीकार किया की चीन से भारत हारा था.
खोले भी तो बस वो पत्ते जिनसे चली दुकान,
राजनीति का चारण बन के, चलते सीना तान,
क्यों कलमें कमजोरी का, अतिरेक बेच के चलती हैं,
स्वतंत्रता, समता के लिए, बस किस्से गढ़ती -पढ़ती हैं,
समग्रता, सम्पूर्ण -एकता सिर्फ ख्याली सोच न हो..
कलम को यह तय करना होगा समग्रता में लोच न हो.
क्या कलमें भविष्य काल में, कुछ हिसाब दे पाएंगी,
देश बनाती हैं कलमें ही, कब एहसास कराएंगी?
……..राकेश मिश्र
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