September 06, 2011

सूचना का अधिकार : एक छलावा

यह लेख http://punarnavbharat।wordpress।com/ से साभार लिया गया है।

जो लोग ये मानते हैं की सुचना का अधिकार कानून ने कोई बड़ा भूचाल ला दिया है, मै उनको लगभग निर्बुद्धि मानता हूँ. सुचना के अधिकार को एकल खिड़की समाधान के तहत लागु करना चाहिए था. सूचनाएं इतनी बुरी तरह से विकेन्द्रित हैं की किसी एक शहर में यदि किसी व्यक्ति को सूचना चाहिए तो सबसे पहले उसे शहर के कम से कम १०० से ज्यादा सरकारी दफ्तरों को सूचीबद्ध करके अपने पास रखना पड़ेगा. यदि कोई व्यक्ति महीने में १० सूचनाएं एकत्रित करने की इच्छा रखता है तो उसे कम से कम १० दिनों के लिए अपने काम, व्यवसाय से छुट्टी लेनी होगी. और सूचना कार्यालय में दरख्वास्त लगा देने के बाद कम से कम ४५ दिन तक सही या गलत जो भी सूचना मिलनी है उसका इन्तजार करना होगा. इस पर भी तुर्रा यह है कि देश कि आधी आबादी निरक्षर है, वह न तो सूचनाओं का कोई मतलब जानते हैं और न ही इसका अपने जीवन में कोई सरोकार मानते हैं. और जो इनका मतलब जानते हैं या इसके उपयोग को हथियार बना के इस्तेमाल करना जानते हैं उन्हें ही इसके आर्थिक सामाजिक तौर पर प्रयोग करके इसका स्वरुप तय करना होता है (पिछले ६ सालों में ज्यादातर पत्रकार भाइयों ने ही इसका सही या गलत जैसा प्रयोग बन पड़ा किया है.) और उस पर भी सुचना के अधिकार के कार्यकर्ताओं के लिए जान तक का खतरा कितना ज्वलंत है.. इस पुरे विधेयक के लिए प्रयुक्त संसाधन सफ़ेद हाथी (almost unproductive ) ही साबित हुए हैं. कहने का मतलब हर एक सरकारी कार्यालय में एक अलग विभाग बना के सुचना अधिकारी और उसके अधीनस्थ कर्मचारियों और संसाधनों कि उपयोगिता लगभग शुन्यमान नहीं तो और क्या है? जनसेवकों का मान रखने के लिए सूचना का अधिकार भी मिल गया और इसके विकेंद्रीकरण कि वजह से आम आदमी कि पहुँच से यह इतना दूर रहा कि न ही यह जनोपयोगी साबित हुआ और न ही आखिरी आदमी इससे जुड़ पाया…. अब आप बताएं कि सरकारें इससे अपनी पीठ ठोंकी हैं तो यह कितना उचित है. एक कंप्यूटर पर पूरी दुनिया कि जानकारी आ सकती है तो भारत देश कि क्यों नहीं? और सुचना तकनीकी की क्रांति में सूचना के अधिकार को इससे अलग रखने में सुनियोजित साजिश नहीं तो और क्या माना जाये ?

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